पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत

Tuesday, July 26, 2011

गीत 63 : मेनेछि हार मेनेछि

मान ली, हार मान गई।
जितना ही तुमको दूर ढकेला
उतनी ही मैं दूर भई।

मेरे चित्‍ताकाश से
तुम्‍हें जो कोई दूर रखे
कैसे भी यह सह्य नहीं
हर बार ही जान गई।

अतीत जीवन की छाया बन
चलता पीछे-पीछे,
अनगिन माया बजाकर वंशी
व्‍यर्थ ही पुकारें मुझे।

सब छूटे, पाकर साथ तुम्‍हारा
अब हाथों में डोर तुम्‍हारे
जो है मेरा इस जीवन में
लेकर आई द्वार तुम्‍हारे।

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