पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत

Saturday, June 18, 2011

गीत 59 : एबार नीरव कोरे दाओ हे

इस बार अपने मुखर कवि को
नीरव कर दो।
उसकी हृदय-बॉंसुरी छीनकर स्‍वयं
गहन सुर भर दो।

निशीथ रात्रि के निविड़ सुर में
तान वह वंशी में भर दो
जिस तान से करते अवाक तुम
ग्रह-शशि को।

बिखरा पड़ा है जो कुछ मेरा
जीवन और मरण में,
गान से मोहित हो मिल जाऍं
तुम्‍हारे चरण में।

बहुत दिनों की बातें सारी
बह जाऍंगी निमिष मात्र में,
बैठ अकेला सुनूँगा वंशी
अकूल तिमिर में।

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