पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत

Thursday, April 21, 2011

गीत 57 : तुमि एबार आमाय लहो हे नाथ लहो

तुम इस बार मुझे अपना ही लो हे नाथ, अपना लो।
इस बार नहीं तुम लौटो नाथ-
हृदय चुराकर ही मानो।

गुजरे जो दिन बिना तुम्‍हारे
वे दिन वापस नहीं चाहिए
खाक में मिल जाऍं वे
अब तुम्‍हारी ज्‍योति से जीवन ज्‍योतित कर
देखो मैं जागूँ निरंतर।

किस आवेश में, किसकी बात में आकर
भटकता रहा मैं जहॉं-तहॉं-
पथ-प्रांतर में,
इस बार सीने से मुख मेरा लगा
तुम बोलो आप्‍तवचन।

कितना कलुष, कितना कपट
अभी भी हैं जो शेष कहीं
मन के गोपन में
मुझको उनके लिए फिर लौटा न देना
अग्‍िन में कर दो उनका दहन।

Wednesday, April 13, 2011

गीत 56 : तव सिंहासनेर आसन ह'ते

सिंहासन के अपने आसन से
तुम आ गए उतरकर-
मेरे एकाकी घर के दरवाजे पर
नाथ, खड़े हो गए ठिठककर।

बैठ अकेला मन-ही-मन
गाता था मैं गान,
तुम्‍हारे कानों तक पहुँचा वह सुर,
तुम आ गए उतरकर-
मेरे एकाकी घर के दरवाजे पर
नाथ, खड़े हो गए ठिठककर।

तुम्‍हारी सभा में कितने ही गुणी
कितने ही हैं गान
मिला तुम्‍हारा प्रेम, तभी गा सका आज
यह गुणहीन भी गान।

विश्‍व-तान के बीच उठा यह
एक करुण सुर।
लेकर हाथों में वर-माला
तुम आ गए उतरकर-
मेरे एकाकी घर के दरवाजे पर
नाथ खड़े हो गए ठिठककर।