पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत

Thursday, December 8, 2011

गीत 65 : कबे आमि बाहिर ह'लेम तोमारई गान गेये

जाने कब मैं बाहर निकली गान तुम्‍हारे ही गाते--
यह तो आज की नहीं, हाँँ आज की बात नहीं।
भूल गई हूँ जाने कब से चाहत तुम्‍हारी मन में--
यह तो आज की नहीं, हाँँ आज की बात नहीं।

झरना जैसे बाहर निकलता
किसकी चाहत नहीं जानता
वैसे ही आई हूँ दौड़ी
जीवनधारा के संग बहती
यह तो आज की नहीं, हाँँ आज की बात नहीं।

कितने ही नामों से रही पुकारती
कितनी ही छवियाँँ रही आँकती
जाने किस आनंद में चलती रही
उसका ठिकाना पाए बिना--
यह तो आज की नहीं, हाँँ आज की बात नहीं।

पुष्‍प जैसे प्रकाश के लिए
काटे अबोध जगकर के रात
वैसे ही तुम्‍हारी चाहत में
मेरा हृदय पड़ा है बिछकर
यह तो आज की नहीं, हाँँ आज की बात नहीं।

Tuesday, November 29, 2011

गीत 64 : एकटि एकटि क'रे तोमार

एक-एक कर अपने
खोलो तार पुराने, खोलो तार पुराने
साधो यह सितार, बॉंधकर नए तार।

खत्‍म हो गया दिन का मेला
सभा जुड़ेगी संध्‍या बेला
अंतिम सुर जो छेड़ेगा, उसके
आने की यह आ गई बेला--
साधो यह सितार, बॉंधकर नए तार।

द्वार खोल दो अपने हे
अंधेरे नभ के ऊपर से
सात लोकों की नीरवता
आए तुम्‍हारे घर में।

इतने दिनों तक गाया जो गान
आज हो जाए उसका अवसान
यह साज है तुम्‍हारा साज
इस बात को ही दो बिसार
साधो यह सितार, बॉंधकर नए तार।

Tuesday, July 26, 2011

गीत 63 : मेनेछि हार मेनेछि

मान ली, हार मान गई।
जितना ही तुमको दूर ढकेला
उतनी ही मैं दूर भई।

मेरे चित्‍ताकाश से
तुम्‍हें जो कोई दूर रखे
कैसे भी यह सह्य नहीं
हर बार ही जान गई।

अतीत जीवन की छाया बन
चलता पीछे-पीछे,
अनगिन माया बजाकर वंशी
व्‍यर्थ ही पुकारें मुझे।

सब छूटे, पाकर साथ तुम्‍हारा
अब हाथों में डोर तुम्‍हारे
जो है मेरा इस जीवन में
लेकर आई द्वार तुम्‍हारे।

Thursday, July 21, 2011

गीत 62 : तोरा शुनिस नि कि शुनिस नि

तुमने सुनी नहीं क्‍या सुनी नहीं, उसके पैरों की ध्‍वनि
वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा है।

युग-युग में, पल-पल में दिन-रात
वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा है।

गाए हैं गान जब भी जितने
अपनी धुन में पागल होकर
सकल सुरों में गूँजित उसकी ही
आगमनी--
वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा है।

युगों-युगों से फागुन-दिन में, वन के पथ पर
वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा है।
सावन के अनगिन अंधकार में बादल-रथ पर
वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा है।

दुख के बाद, चरम दुख में
उसकी ही पगध्‍वनि आती हिय में
सुख में जाने कब परस कराता
पारसमणि।
वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा है।

Wednesday, June 22, 2011

गीत 61 : से जे पाशे एसे बसे छिलो

वह तो पास आकर बैठा था
तब भी जागी नहीं।
कैसी नींद थी तुम्‍हारी,
हतभागिनी।

आया था नीरव रात में
वीणा थी उसके हाथ में
सपने में ही छेड़ गया
गहन रागिनी।

जगने पर देखा, दक्षिणी हवा
करती हुई पागल
उसकी गंध फैलाती हुई
भर रही अंधकार।

क्‍यों मेरी रात बीती जाती
साथ पाकर भी पास न पाती
क्‍यों उसकी माला का परस
वक्षों को हुआ नहीं।

Monday, June 20, 2011

गीत 60 : विश्‍व जखन निद्रामगन

विश्‍व जब निद्रा-मग्‍न
गगन में अंधकार,
कौन देता मेरी वीणा के तारों में
ऐसी झनकार।

नयनों से नींद छीन ली
उठ बैठी छोड़कर शयन
ऑंख मलकर देखूँ खोजूँ
पाऊँ न उनके दर्शन।

गुंजन से गुंजरित होकर
प्राण हुए भरपूर
न जाने कौन-सी विपुल वाणी
गूँजती व्‍याकुल सुर में।

समझ न पाती किस वेदना से
भरे दिल से ले अश्रुभार
किसे चाहती पहना देना
अपने गले का हार।

Saturday, June 18, 2011

गीत 59 : एबार नीरव कोरे दाओ हे

इस बार अपने मुखर कवि को
नीरव कर दो।
उसकी हृदय-बॉंसुरी छीनकर स्‍वयं
गहन सुर भर दो।

निशीथ रात्रि के निविड़ सुर में
तान वह वंशी में भर दो
जिस तान से करते अवाक तुम
ग्रह-शशि को।

बिखरा पड़ा है जो कुछ मेरा
जीवन और मरण में,
गान से मोहित हो मिल जाऍं
तुम्‍हारे चरण में।

बहुत दिनों की बातें सारी
बह जाऍंगी निमिष मात्र में,
बैठ अकेला सुनूँगा वंशी
अकूल तिमिर में।

Wednesday, June 15, 2011

गीत 58 : जीवन जखन शुकाये जाय

जीवन जब लगे सूखने
करुणा-धारा बनकर आओ।
सकल माधुर्य लगे छिपने,
गीत-सुधा-रस बरसाओ।

कर्म जब लेकर प्रबल आकार
गरजकर ढक ले चार दिशाऍं
हृदय-प्रांत में, हे नीरव नाथ,
दबे पॉंव आ जाओ।

स्‍वयं को जब बनाकर कृपण
कोने में पड़ा रहे दीन-हीन मन
द्वार खोलकर, हे उदार-मन,
राजसी ठाठ से आओ।

वासना जब विपुल धूल से
अंधा बना अबोध को छले
अरे ओ पवित्र, अरे ओ अनिद्र
प्रचंड प्रकाश बन आओ।

Thursday, April 21, 2011

गीत 57 : तुमि एबार आमाय लहो हे नाथ लहो

तुम इस बार मुझे अपना ही लो हे नाथ, अपना लो।
इस बार नहीं तुम लौटो नाथ-
हृदय चुराकर ही मानो।

गुजरे जो दिन बिना तुम्‍हारे
वे दिन वापस नहीं चाहिए
खाक में मिल जाऍं वे
अब तुम्‍हारी ज्‍योति से जीवन ज्‍योतित कर
देखो मैं जागूँ निरंतर।

किस आवेश में, किसकी बात में आकर
भटकता रहा मैं जहॉं-तहॉं-
पथ-प्रांतर में,
इस बार सीने से मुख मेरा लगा
तुम बोलो आप्‍तवचन।

कितना कलुष, कितना कपट
अभी भी हैं जो शेष कहीं
मन के गोपन में
मुझको उनके लिए फिर लौटा न देना
अग्‍िन में कर दो उनका दहन।

Wednesday, April 13, 2011

गीत 56 : तव सिंहासनेर आसन ह'ते

सिंहासन के अपने आसन से
तुम आ गए उतरकर-
मेरे एकाकी घर के दरवाजे पर
नाथ, खड़े हो गए ठिठककर।

बैठ अकेला मन-ही-मन
गाता था मैं गान,
तुम्‍हारे कानों तक पहुँचा वह सुर,
तुम आ गए उतरकर-
मेरे एकाकी घर के दरवाजे पर
नाथ, खड़े हो गए ठिठककर।

तुम्‍हारी सभा में कितने ही गुणी
कितने ही हैं गान
मिला तुम्‍हारा प्रेम, तभी गा सका आज
यह गुणहीन भी गान।

विश्‍व-तान के बीच उठा यह
एक करुण सुर।
लेकर हाथों में वर-माला
तुम आ गए उतरकर-
मेरे एकाकी घर के दरवाजे पर
नाथ खड़े हो गए ठिठककर।