पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत

Monday, September 20, 2010

गीत 50 : निभृत प्राणेर देवता

एकाकी हैं जहाँ जागते
देवता निभृत प्राणों के,
भक्त, वहीं खोलो द्वार
आज करूँगी दर्शन उनके।

सारा दिन केवल बाहर ही
घूम-घूम किसको चाहूँ रे,
सांध्य-बेला की आरती
सीख नहीं मैं पाई रे।

तुम्हारे जीवन के प्रकाश से
अपना जीवन-दीप जलाऊँ
हे पुजारी, निभृत में आज
मैं अपनी थाल सजाऊँ।

जहाँ पर निखिल की साधना
करे पूजालोक की रचना
वहीं पर मैं भी आँकूँगी
बस एक ज्योति रेखा।

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