पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत

Tuesday, August 31, 2010

गीत 40 : जा हारिये जाय ता आगले ब'से

जो खो जाता है, उसे बैठकर
जोगूँ और कितना।
अब रात में जाग न सकती नाथ
संभव भी न सोचना।

दिन-रात हूँ मैं अनवरत
बंद किए हुए अपना द्वार,
आना जो चाहे, शंका में उसे
भगा देती बार-बार।

तभी तो आना किसी का हुआ नहीं
बस मेरे ही घर।
आनंदमय भुवन तुम्हारा
रहे खेलता बाहर।

जानूँ तुम्हें भी राह न मिलती,
लौट जाते हो आ-आकर,
जिसे रखना चाहूँ, वह भी न रहे-
मिट्टी में मिल जाए।

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