पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत

Friday, August 20, 2010

गीत 33 : आबार एरा घिरेछे मोर मन

फिर इन्हीं से घिरा मेरा मन
फिर आँखों में उतरा आकाश।

फिर यह कितनी ही बातों में उलझा,
चित्त मेरा नाना दिशाओं में भटका,
दाह फिर बढ़ उठा है क्रमशः,
फिर यह खो बैठा श्रीचरण।

तुम्हारी नीरव वाणी हृदय तल में
कहीं डूबे न जग के कोलाहल में।

रहो सबके बीच भी साथ मेरे,
रखो सदा ही मुझको अपने अंतर में,
चेतना पर मेरी रखो निरंतर
आलोक भरा उदार त्रिभुवन।

No comments:

Post a Comment