पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत

Sunday, August 15, 2010

गीत 29 : धने जने आछि जड़ाये हाय

हाय, बँधी हुई हूँ धन-जन से,
लेकिन जानते हो, मन तुम्हें ही चाहे।

अंतर में हो, हे अंतर्यामी--
मुझको मुझसे अधिक जानते, स्वामी--
सब सुख-दुख, भूल-भ्रम में भी
जानते हो, मेरा मन तुम्हें ही चाहे।

छोड़ न पाई अहंकार,
सिर पर ढोती घूम रही हूँ,
हाय, छोड़ने पर ही तो बचूँगी मैं--
तुम जानते हो, मन तुम्हें ही चाहे।

जो मेरा है सबकुछ कब तुम
अपने हाथों में उठा लोगे।
सब छोड़कर सब पाऊँगी तुम्हीं में,
मन ही मन, मन तुम्हें ही चाहे।

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