पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत

Wednesday, August 11, 2010

गीत 25 : हेरि अहरह तोमार विरह

अहरह तुम्हारा विरह मैं पाती
विराजित भुवन-भुवन में।
सजा हुआ नाना रूपों में
भूधर, कानन, सागर और गगन में।

हरेक तारे में रात भर
अनिमेष नेत्रों से खड़ा नीरव,
सावन की फुहार में पल्लव दलों पर
मुखरित है तुम्हारा ही विरह।

तुम्हारा गहन विरह ही है समाया
घर-घर आज अनंत वेदनाओं में,
न जाने कितने प्रेमों और कितनी वासनाओं में
कितने ही सुख-दुख और कामकाजों में।

जीवन भर उदास करके
कितने ही गानों-सुरों का रूप धर
विरह तुम्हारा ही उमगता
मेरे हृदय के बीच से।

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