पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत

Monday, July 26, 2010

गीत 19 : आषाढ़-संध्‍या घनिए एलो

आषाढ़-संध्या घिर आई,
दिन फिर गया गुजर।
बंधनहारा वृष्टिधारा
झर रही रह-रहकर।

घर के कोने में बैठ अकेले
यह सोचूँ मन ही मन मैं
भीगी हवा जूही के वन में
कौन-सी बात कहे जाकर।

बंधनहारा वृष्टिधारा
झर रही रह-रहकर।

ज्वार उठा है अंतर में,
खोज न पाऊँ कूल।
रोते प्राण, सुरभि से जब
भीगे वन के फूल।

अँधेरी रात के इन प्रहरों में,
गाऊँ मैं किन सुरों में,
हूँ मैं आकुल-व्याकुल
सब भूल जाऊँ कहाँ खोकर।

बंधनहारा वृष्टिधारा
झर रही रह-रहकर।

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