पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत

Sunday, July 18, 2010

गीत 11 : आमरा बेंधेछि काशेर गुच्‍छ

हमने बाँधे हैं काश-गुच्छ, हमने
गूँथी हैं शेफाली-माला।
नए धान की मंजरियों से
सजाकर लाए हैं डाला।

पधारो हे शारद-लक्ष्मी
अपने उज्ज्वल मेघरथ पर,
पधारो निर्मल नीले पथ पर,
पधारो धवल श्यामल
आलोक में झलमल
वन-गिरि-पर्वत पर।
पधारो शीतल ओसकणों से सज्जित
श्वेत शतदल का मुकुट पहन।

उमड़ी हुई गंगा के तट पर
निभृत निकुंज में बिछा है आसन
झरे मालती फूलों से।
राजहंस घूमते पंख पसारे
तुम्हारे चरणों के नीचे।

अपनी स्वर्ण वीणा के तारों की
गुंजर-तान उठाओ
मृदुल मधुर झंकार में,
हो उठेगा विगलित सस्मित सुर
क्षणिक अश्रुधार में।

रह-रहकर जो पारसमणि
झलक उठती तुम्हारी अलकों में
पलकें करुणासिक्त कर
परस कराओ मेरे मन का
भावनाएँ सकल बन जाएँ सोना
हो जाए आलोकित अंधकार।

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